संस्कार व संस्कृति की भूमि : थाईलैंड

संस्कार व संस्कृति की भूमि : थाईलैंड

संस्कार व संस्कृति की भूमि : थाईलैंड

हाल ही में मुझे एक ग़ैर सरकारी स्वयं सेवी संस्था “देवनागरी उत्थान फाउंडेशन” (पंजीकृत) के तत्वावधान में स्वखर्च पर एक अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन तथा सम्मान समारोह का महत्त्वपूर्ण भाग बनने का सुअवसर प्राप्त हुआ जिसके कारण मैं अपने जीवन की प्रथम विदेश यात्रा कर पाई, क्योंकि यह सम्पूर्ण कार्यक्रम थाईलैंड में आयोजित किया गया था । भारत से हम 57 शिक्षिकाएँ व शिक्षक इसमें भाग ले रहे थे । कार्यक्रम तो भली - भाँति पूर्ण हुआ ही, किंतु लोगों से थाईलैंड के बारे में सुन - सुनकर जो मन में एक धारणा बन चुकी थी, वह पूर्णतः परिवर्तित हो गई । 
             समूचे विश्व में “थाई मसाज” तथा “भोग - लिप्सा” के लिए थाईलैंड को जिस प्रकार कुख्यात किया गया है, मैंने उस भूमि को सर्वथा उसके उलट पाया । दूसरी जगहों पर जिन संस्कारों का केवल बोलबाला होता है, वे थाईलैंड में जीवंत हैं । वहाँ के लोग शोर नहीं करते, उनका काम बोलता है । “स्वच्छता ही ईश्वर प्राप्ति का साधन है” यह हम जानते हैं और इसके नारे भी लगाते हैं । थाई लोग नारे नहीं लगाते, कर दिखाते हैं । ऐसा लग रहा था मानो स्वच्छता उनके जीवन का प्रथम लक्ष्य है । एयरपोर्ट से ले कर होटल पहुँचने तक रास्ते में कोई कूड़ा - कर्कट, गंदगी, काँच, काग़ज़, प्लास्टिक, कुछ भी नहीं था । जिस भी होटल में जाओ, खाने के बर्तन ऐसे चमकते जैसे आज ही ख़रीदे हों, हम खाने की मेज़ से पूरे उठे भी न होते कि मेज़ साफ़ कर दी जाती, चाहे ढाबा हो या ठेला, एक - एक बर्तन, शीशा, फ़र्श व ज़र्रा - ज़र्रा चमकता । 
         कोरल आइलैंड पर पचास से अधिक खाने - पीने व छोटे - मोटे सामानों की दुकानें रही होंगी किंतु समुद्र किनारे एक सुई - भर की भी गंदगी नहीं थी । लोग डिस्पोज़ेबल बर्तनों में खाते , नारियल पानी पीते, न जाने वह गंदगी धरती पर गिरने से पहले ही कहाँ लुप्त हो जाती । दूर - दूर तक केवल साफ़ - सुंदर प्रकृति थी, ऐसा कोई कृत्रिम निशान नहीं, जो आँखों को चुभे । स्पीड बोट पर चढ़ते - उतरते लोगों के जूतों के जो निशान छपते, उन्हें एक पल गँवाए बिना तत्क्षण ही धोकर साफ़ किया जाता, शौचालय चाहे होटल के हों या सार्वजनिक, ऐसे चमकते, जैसे आज ही लगाए हों, प्रतिदिन सैकड़ों की संख्या में सैलानी उनका प्रयोग कर रहे थे, लेकिन वहाँ न दुर्गंध, न कोई अप्रिय निशान । 
        वहाँ हर कोई केवल काम में लिप्त दिखाई देता, न कि मोबाइल में व्यस्त । एयरपोर्ट के अलावा मैंने एक भी थाई व्यक्ति के हाथ में मोबाइल नहीं देखा । वे लोग समय व्यर्थ करना नहीं जानते । अपने काम के प्रति ईमानदार व दृढ़ निश्चयी होते हैं । कर्मठता उनके रक्त में दौड़ती है । आलस्य मनुष्य का शत्रु है तथा उस शत्रु को वे अपने पास नहीं फटकने देते । वे सदा काम करते दिखाई देते हैं, गप्पें लड़ाते नहीं, न ही चीखते - चिल्लाते हुए एक दूसरे को पुकारते दिखाई देते हैं, जितना आवश्यक हो, उतना ही बोलते हैं । सेवा - सत्कार की भावना उनमें कूट - कूट कर भरी है । 
            आज कोई भी देश तकनीकी विकास से अछूता नहीं है, किंतु प्रत्येक दृष्टि से सक्षम होते हुए भी थाई लोग आज भी दिखावेबाज़ संस्कृति से कोसों दूर हैं । उनमें बड़बोलापन नहीं है । क्रूज़ पर जब हमने कदम रखा तो उन्होंने पूरे दो घंटे तक बॉलीवुड के गाने बजाकर हमें भारत में ही होने का अनुभव कराया और भारत को मान दिया । अंत में “मेरे देश की धरती सोना उगले” बजाकर उन्होंने हम सबको देशभक्ति के भाव से विभोर कर दिया । हम लोग जब नियत समय सीमा लाँघकर भी पर्यटक स्थलों पर ज्यों के त्यों बने रहते, तो वे चुपचाप हमारे आगे हाथ बाँधे या हाथ जोड़े खड़े रहते और अपनी सहिष्णुता से हमें वहाँ से चले जाने पर बाध्य कर देते । उनकी इस विनम्रता और शालीनता ने वहाँ न जाने कितनी बार मेरा हृदय जीत लिया । एक - दूसरे की सहायता करने की तो मानो वहाँ होड़ लगी रहती है । प्रत्येक व्यक्ति सदा किसी के काम आने के लिए तत्पर रहता है । 
          “हम धार्मिक हैं” - ऐसा कहने और धार्मिक होने में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है । महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के अनुयायी थाई लोग आज भी अपने शांत व्यक्तित्व में महात्मा बुद्ध को जीवित रखे हुए हैं, वहाँ हर चेहरा गहराई , गंभीरता व चारुस्मिता लिए हुए है । उनके जिस व्यवसाय के लिए उनकी अवमानना की जाती है, उसके संबंध में मैं यह कहूँगी कि संसार में व्यक्ति दूसरे का गला काटकर, लूट - खसोट कर, चोरी कर, डाका डालकर या भ्रष्टाचार कर भी तो कमा ही रहा है । वे कम से कम यह सब करने से बचते हैं, तो हमें उनके प्रति छिद्रान्वेषी होने का कोई अधिकार नहीं है । 
       भारत वापस आते समय एयरपोर्ट पर मैंने थाईलैंड की धरती को कम से कम दस बार पलट - पलट कर देखा था । कोई स्वदेश लौटते समय यदि विदेश को मुड़- मुड़ कर देख रहा हो, तो उस धरती में, उसके परिवेश में तथा वहाँ के लोगों में कुछ तो बात होगी ।

                         डॉ. रक्षा मेहता 
                         हैदराबाद, तेलंगाना 772-987-9054